Tuesday, October 21, 2025
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लखनऊ का चारबाग स्टेशन हुआ 100 साल का

लखनऊ: चारबाग रेलवे स्टेशन आज 100 साल का हो गया है। एक सदी पूरी हो गई इस स्टेशन को बने हुए। सोचिए, एक सौ साल पहले कैसी रही होगी ये जगह। आज जहाँ लाखों लोग रोज़ सफर करते हैं, वहाँ एक समय था जब सिर्फ़ कुछ गिनी-चुनी ट्रेनें ही चलती थीं। चारबाग स्टेशन का इतिहास बहुत पुराना और बहुत दिलचस्प है।
सन 1925 में जब ये स्टेशन बनाया गया था, तब लखनऊ शहर इतना फैला नहीं था। लोग बैलगाड़ी, साइकिल या पैदल स्टेशन तक आते थे। उस वक्त स्टेशन के चारों ओर बाग-बग़ीचे हुआ करते थे। इसलिए इसका नाम पड़ा – चारबाग। चार बागों का संगम था ये इलाका।

चारबाग स्टेशन को सिर्फ़ एक सफर की शुरुआत या मंज़िल की जगह मत समझिए। ये एक ज़िंदा इतिहास है। इसकी इमारत को देखिए – लाल रंग की मोटी दीवारें, बड़ी-बड़ी गुम्बदें और मेहराबें, जैसे कोई किला हो या पुराना महल। इसे देख कर ही लगता है कि ये स्टेशन नहीं, कोई शाही दरबार रहा होगा कभी। इसकी बनावट में मुग़ल और राजस्थानी अंदाज़ दोनों मिलते हैं पहले जब कोई ट्रेन आती थी, तो दूर से ही भाप के इंजन की सीटी सुनाई देती थी। स्टेशन पर उस समय न तो लाउडस्पीकर थे, न डिजिटल बोर्ड। कुली आवाज़ लगाकर बताते थे कि कौन सी गाड़ी कहाँ लगी है। टिकट खिड़की पर लंबी लाइनें लगती थीं। लोग ज़्यादा सामान लेकर चलते थे

बिस्तरबंद, स्टील का टिफिन, थैलों में खाने का सामान। सफर एक तज़ुर्बा होता था, जिसमें स्टेशन भी एक याद बन जाता था चारबाग की एक अलग ही रौनक थी – स्टेशन पर बैठकर चाय पीना, खिड़की से बाहर झाँकते बच्चे, कहीं दूर जाती ट्रेन की सीटी और सबके चेहरे पर सफर की उम्मीद धीरे-धीरे समय बदलता गया। भाप वाले इंजन गए, उनकी जगह डीज़ल और फिर इलेक्ट्रिक इंजन आए। टिकटों की जगह अब ऑनलाइन बुकिंग हो गई। प्लेटफॉर्म पर स्क्रीन लग गईं, जिससे ट्रेन की जानकारी मिलती है। पहले जो स्टेशन एक मंज़िल जैसा लगता था, अब वो एक आधुनिक जंक्शन बन चुका है।

आज चारबाग लखनऊ का सबसे व्यस्त स्टेशन है। देश के हर कोने से यहाँ ट्रेनें आती हैं – दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु, जम्मू, गुवाहाटी तक। स्टेशन पर रोज़ाना लाखों लोग आते हैं – कोई नौकरी की तलाश में, कोई पढ़ाई के लिए, कोई त्योहार पर घर आने के लिए चारबाग की पहचान सिर्फ उसकी इमारत से नहीं है, बल्कि यहाँ के लोगों से है – वो चाय वाला जो सुबह 4 बजे से चाय बेच रहा है, वो कुली जो सालों से लोगों का बोझ उठाता आ रहा है, वो टिकट क्लर्क जो मुस्कुरा कर ‘अगला यात्री प्लीज़’ कहता है, और वो सफाईकर्मी जो रोज़ इस भीड़-भाड़ में सफाई बनाए रखता है।
अब बात करें आज की तो चारबाग स्टेशन पहले से काफी बदल चुका है।

अब यहाँ एस्केलेटर लगे हैं, स्टेशन की साज-सज्जा बेहतर हुई है, और सुरक्षा के लिए सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। ट्रेन पकड़ना अब उतना मुश्किल नहीं जितना पहले हुआ करता था। स्मार्टफोन में ऐप खोलो और सब जानकारी मिल जाती है।
पर फिर भी, कुछ चीज़ें वैसी की वैसी हैं। स्टेशन की दीवारें अब भी पुरानी कहानियाँ सुनाती हैं। वो सर्दियों की सुबह जब प्लेटफॉर्म पर धुंध छाई रहती है, या गर्मी की दोपहर जब पंखे चल रहे होते हैं और लोग बेंचों पर बैठे होते हैं – सब कुछ वैसा ही है स्टेशन के बाहर जो समोसे, कचौड़ी, और चाय मिलती है – उसका स्वाद आज भी वैसा ही है। पुराने लोग आज भी बताते हैं कि “पहले जो चारबाग का माहौल था, वो कहीं और नहीं मिलता।” और सच कहें तो आज भी स्टेशन की वो पुरानी रौनक कहीं न कहीं ज़िंदा है।

अब जब चारबाग 100 साल का हो गया है, तो सरकार और रेलवे ने इसे और आधुनिक बनाने की योजना बनाई है। प्लेटफॉर्म और भी साफ होंगे, नई तकनीक आएगी, स्टेशन पर और भी सुविधाएं मिलेंगी – जैसे डिजिटल टिकटिंग, स्मार्ट वेटिंग रूम, और पर्यावरण के लिए सोलर लाइट्स पर जो असली सवाल है वो ये कि इतने बदलावों के बीच, क्या चारबाग का दिल वैसा ही रहेगा? क्या वो अपनापन, वो पुराना एहसास, वो गाड़ी छूटने से पहले दौड़ लगाना – क्या वो सब अब भी जिंदा रहेगा शायद जवाब है – हाँ। क्योंकि चारबाग सिर्फ एक स्टेशन नहीं है, वो लखनऊ का दिल है। एक ऐसी जगह जहाँ हर कोई कभी न कभी ज़रूर आता है – मुसाफिर बनकर, मेहमान बनकर, या लौटते हुए अपनों के पास।
चारबाग ने 100 सालों में बहुत कुछ देखा – आज़ादी का आंदोलन, बँटवारा,

नई सरकारें, नई पीढ़ियाँ। पर एक बात नहीं बदली – यहाँ हर किसी की एक कहानी है। किसी की पहली नौकरी यहीं से शुरू हुई, किसी की शादी की बारात यहीं से रवाना हुई, किसी ने यहीं पहली बार ट्रेन देखी, किसी ने यहीं आखिरी अलविदा कहा चारबाग स्टेशन की यही ख़ूबसूरती है – हर दिन हज़ारों कहानियाँ यहाँ जन्म लेती हैं, और हज़ारों लोग अपनी मंज़िल की तरफ निकल पड़ते हैं 100 साल के इस सफर में चारबाग सिर्फ लखनऊ का स्टेशन नहीं, लखनऊ की रूह बन चुका है। और ये रूह आने वाले कई सालों तक मुसाफिरों का स्वागत करती रहेगी – वैसे ही जैसे वो 1925 में किया करती थी।

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