चीन: पिछले कुछ वर्षों से गरीब और विकासशील देशों को भारी कर्ज़ देकर उन्हें एक तरह से अपने आर्थिक जाल में फंसा रहा है। शुरुआत में यह सब कुछ सहयोग और विकास के नाम पर होता है—बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स जैसे बंदरगाह, सड़क, रेलवे और पावर प्लांट्स के लिए चीन अरबों डॉलर उधार देता है। लेकिन असली चाल यहीं छुपी होती है। ये कर्ज़ इतनी भारी शर्तों पर दिए जाते हैं कि ज्यादातर देश समय पर इसे चुका नहीं पाते। जब देश भुगतान करने में असमर्थ होते हैं, तब चीन उन देशों की ज़मीन, संपत्ति या रणनीतिक संसाधनों को अपने कब्जे में ले लेता है। श्रीलंका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां चीन ने हंबनटोटा पोर्ट को 99 साल के लिए अपने कब्जे में ले लिया क्योंकि श्रीलंका कर्ज़ नहीं चुका पाया।
इसी तरह पाकिस्तान का सीपैक प्रोजेक्ट, लाओस की बिजली परियोजनाएं, और अफ्रीकी देशों में चल रहे कई निर्माण प्रोजेक्ट्स धीरे-धीरे उन देशों की आर्थिक आज़ादी छीन रहे हैं। चीन कई बार कर्ज़ के बदले उन देशों की आमदनी को नियंत्रित करने लगता है, जैसे कि टैक्स कलेक्शन, खनिज, या पावर रेवेन्यू का एक हिस्सा सीधे अपने पास रख लेता है। इससे उन देशों की सरकारें जनता के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं पर खर्च नहीं कर पातीं, और पूरी तरह चीन की शर्तों पर निर्भर हो जाती हैं। कई रिपोर्ट्स में यह भी बताया गया है कि चीन जानबूझकर ऐसे देशों को लक्ष्य बनाता है जहां लोकतंत्र कमजोर होता है और नेता भ्रष्ट होते हैं—ताकि डील करना आसान हो और पारदर्शिता की कोई बाधा न हो।
चीन ये सब एक बहुत सोच-समझकर बनाई गई रणनीति के तहत कर रहा है, जिसे आम भाषा में ‘debt trap’ यानी कर्ज़ का जाल कहा जाता है। इसके ज़रिए चीन धीरे-धीरे दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था ही नहीं, उनकी नीति और संप्रभुता तक पर असर डालने लगता है। ये सिर्फ व्यापार नहीं, एक तरह का राजनीतिक और भू-रणनीतिक खेल है। चीन का असली मकसद सिर्फ पैसा कमाना नहीं, बल्कि दुनिया के रणनीतिक इलाकों पर कब्ज़ा जमाना है।