वाराणसी: रामकमल दास, इन दिनों सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बने हुए हैं। वजह यह है कि शहर के भेलूपुर क्षेत्र के वार्ड नंबर 51 की वोटर लिस्ट में लगभग 48 लोगों के पिता के नाम में “रामकमल दास” लिखा हुआ है। जब यह जानकारी सामने आई, तो कई लोगों को आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति के इतने सारे बेटे कैसे हो सकते हैं।
इस मामले ने तब और तूल पकड़ लिया जब कुछ राजनीतिक दलों ने इसे चुनाव आयोग की लापरवाही बताया और इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। कांग्रेस की ओर से भी यह आरोप लगाया गया कि एक ही व्यक्ति के नाम पर इतने सारे मतदाता दर्ज करना चुनावी गड़बड़ी है।
हालांकि, जब जांच की गई तो सामने आया कि यह मामला किसी धोखाधड़ी से नहीं, बल्कि एक *धार्मिक परंपरा* से जुड़ा है। दरअसल, रामकमल दास वाराणसी के *राम जानकी मठ* (गुरुधाम) के *महंत* हैं। वह अविवाहित संत हैं और उन्होंने जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन किया है।
उनके मठ में देशभर से शिष्य आते हैं, जो संन्यास लेते हैं और धार्मिक जीवन अपनाते हैं। हिंदू परंपरा के अनुसार, जब कोई व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता है तो वह सांसारिक रिश्तों को त्याग देता है, और अपने *गुरु को ही अपने आध्यात्मिक पिता* के रूप में स्वीकार करता है। इसी कारण, इन सभी शिष्यों ने अपने मतदाता पहचान पत्र और अन्य सरकारी दस्तावेजों में अपने पिता के स्थान पर “रामकमल दास” का नाम दर्ज करवाया है।
इस पर मठ के वर्तमान सचिव रामभरत शास्त्री ने भी स्पष्ट किया कि ये सभी शिष्य हैं, और परंपरा के अनुसार उन्होंने ही अपने दस्तावेजों में गुरु का नाम पिता के स्थान पर दिया है। इसमें मठ का या संत रामकमल दास का कोई निजी हस्तक्षेप नहीं रहा प्रशासन ने भी जांच के बाद स्पष्ट किया कि मतदाता सूची में दर्ज यह जानकारी किसी प्रकार की अनियमितता नहीं है। राज्य निर्वाचन आयोग ने कहा कि इस तरह की प्रविष्टियां मान्य हैं, क्योंकि यह धार्मिक परंपरा का हिस्सा हैं।
गौरतलब है कि ऐसी परंपराएं पहले भी देखी जा चुकी हैं, जहां संन्यासियों के शिष्यों ने अपने दस्तावेजों में अपने गुरु का नाम दर्ज कराया है। 2016 में भारत सरकार ने भी एक स्पष्ट गाइडलाइन जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति संन्यास लेने के बाद अपने शैक्षणिक और पहचान पत्रों में पिता के स्थान पर अपने गुरु का नाम दर्ज करा सकता है।
इस पूरे मामले में अब स्थिति साफ हो गई है
कि यह “रामकमल दास के 48 बेटे” होना कोई जैविक या पारिवारिक संबंध नहीं है, बल्कि यह *गुरु-शिष्य परंपरा* का एक उदाहरण है, जो भारतीय संस्कृति का हिस्सा है।इस घटना को शुरुआत में गलत तरीके से प्रचारित किया गया, लेकिन अब तथ्य सामने आने के बाद यह साफ हो गया है कि यह कोई चुनावी गड़बड़ी नहीं, बल्कि एक मान्य और पुरानी धार्मिक परंपरा है।