दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने गुरुवार को एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कोविड-19 महामारी के दौरान मार्च 2020 में तबलीगी जमात से जुड़े 70 भारतीय नागरिकों के खिलाफ दर्ज 16 मामलों को खारिज कर दिया। ये मामले तब दर्ज किए गए थे जब निजामुद्दीन मरकज में हुए एक धार्मिक कार्यक्रम में देश-विदेश से लोग शामिल हुए थे। आरोप था कि इन लोगों ने विदेशी नागरिकों को अपने यहां छिपाकर रखा था और लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन किया। कोर्ट ने कहा कि इन मामलों में कोई पुख्ता सबूत नहीं है और केवल शक के आधार पर किसी पर केस नहीं चलाया जा सकता।
इस फैसले के बाद एक बार फिर यह सवाल उठा है कि कोरोना के शुरुआती दिनों में तबलीगी जमात और मुस्लिम समुदाय को लेकर जो माहौल बनाया गया था, वो कितना सही था। बहुत से लोगों का मानना है कि उस समय एक पूरे समुदाय को जानबूझकर निशाना बनाया गया। टीवी चैनलों पर भी मुसलमानों को कोरोना फैलाने वाला बताया गया, जिससे समाज में नफरत फैलने लगी थी। लॉकडाउन की उस मुश्किल घड़ी में जब पूरा देश डरा हुआ था, कुछ लोगों ने इस डर को एक खास धर्म के खिलाफ मोड़ दिया।
असल में, तबलीगी जमात के कार्यक्रम से पहले और बाद में भी देशभर में कई बड़े धार्मिक और राजनीतिक आयोजन हुए, लेकिन सवाल सिर्फ मरकज और मुस्लिमों पर उठे। इस पूरे मामले को लेकर कई लोगों को जेल जाना पड़ा, विदेशियों को महीनों तक हिरासत में रखा गया, और अब जाकर कोर्ट ने कहा कि इन मामलों का कोई कानूनी आधार नहीं है।
साफ है कि ये सिर्फ कानून की बात नहीं थी, इसके पीछे एक सोच काम कर रही थी—जो किसी एक धर्म या समुदाय को गलत साबित करना चाहती थी। यह फैसला न सिर्फ इंसाफ की ओर एक कदम है, बल्कि ये भी बताता है कि जब मीडिया और राजनीति किसी एक वर्ग को बिना सबूत के दोषी ठहराने लगे, तो उससे ना सिर्फ इंसानियत को नुकसान होता है, बल्कि देश का सामाजिक ताना-बाना भी टूटने लगता है।
अब जबकि कोर्ट ने इन मामलों को खारिज कर दिया है, ज़रूरत इस बात की है कि समाज और सिस्टम मिलकर सोचें कि ऐसी गलतियाँ दोबारा ना हों। किसी को भी सिर्फ उसकी जात, धर्म या पहनावे की वजह से टारगेट करना हमारे संविधान और इंसानियत दोनों के खिलाफ है।